छोड़कर सडको को पक्की आज फिर से !
लौट आया हु मै इन पग्डन्डीयो पर !!
थे जन्हा सीखे नह्ने पैर चलना !
देखकर सूरज उगता आंख मलना !!
फिर उन्ही सुबहों का सलाम लेने !
लौट आया हु मै इन पग्डन्डीयो पर !!
झूठ और फरेब के उस शहर से !
कलि रातों और उन धुंधली सहर से !!
पाने को अपना फिर इमान खोया !
लौट आया हु मै इन पग्डन्डीयो पर !!
जिन्दगी कि दौड़ मे दिल कितने टूटे !
पाने मे शोहरत सभी अपने थे छुटे !!
हाथ फिर अपनो के छुटे थमने को !
लौट आया हु मै इन पग्डन्डीयो पर !!
लौट आया हु मै इन पग्डन्डीयो पर !!
थे जन्हा सीखे नह्ने पैर चलना !
देखकर सूरज उगता आंख मलना !!
फिर उन्ही सुबहों का सलाम लेने !
लौट आया हु मै इन पग्डन्डीयो पर !!
झूठ और फरेब के उस शहर से !
कलि रातों और उन धुंधली सहर से !!
पाने को अपना फिर इमान खोया !
लौट आया हु मै इन पग्डन्डीयो पर !!
जिन्दगी कि दौड़ मे दिल कितने टूटे !
पाने मे शोहरत सभी अपने थे छुटे !!
हाथ फिर अपनो के छुटे थमने को !
लौट आया हु मै इन पग्डन्डीयो पर !!
2 comments:
Kavi shri Piyush ji ka me shuru se hi prasnshak raha hu, Unke lekhan ka ek naya tarika hai jo ki sab se muktalif hai.
Jaise ki is kavita me unhone aaj kal ke nav yuvako ki manosthiti ko ek dam nicod ke rakh dia hai..
sundar kavita.. man ko chhoo gai !
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